Sunday, September 17, 2006

दो गजलें ।

होता कैसे ये गजलें किसिने मुझे सिखाया नहिं ।
लिखते कैसे ईसको किसिने राहें दिखाया नहिं ।

फिर भि लिख रहा हुं मैँ अपने दिल बहलाने ,
अच्छे है या नहिं मेरे गजलें किसिने बताया नहिं ।

हिन्दि मेरे भाषा नहिं जहाँ मैँ काबिल बनुं ,
मगर सुन्दर ईतना है कि मैने समझा पराया नहिं ।

ईसलिए मैने हिन्दिमें लिखाहुवा दो गजलें ईस ब्लगमें रखरहा हुं । क्या ये गजलें कहलानेके काबिल है? आपको कैसा लगा? कमेण्ट छोडिएगा ।


जिस दिन आपसे मेरे बातें हुवा था ।
आपके बातों ने मेरे दिलको छुवा था । १

सोचा हि नहिं था आपसे फिर मुलाकात होगा ,
हो गई आज हि ये जो खुदाका दुवा था । २

दीपक जलाया था मैने रोशनी पाने के लिए ,
मगर चारोंओर मेरा सिर्फ धुँवा धुँवा था । ३

तडप रहा था मैं कबसे प्यास बुझानेके लिए ,
पता हि नहिं था मेरे दिलके पास हि कुवाँ था । ४



ये दिलकी बातें अगर तुमने सुना होता ।
काश तुमने हमसफर मुझको चुना होता । १

तेरे दिलकि कैदखानेमें बन्द रहने के लिए ,
काश मैने किया कोहि गुना होता । २

आजाद पञ्छी कि तरह आसमाँमें उडती ,
काश तुझे फसाने कोहि जाल बुना होता । ३

ईतना तन्हाँ होकर मैं बैठे नहिं रहता ,
काश मेरे जिन्दगी में तुम्हारा आना होता । ४

बुझा बुझा दीपकसा हाल मेरा हो जाता नहिं ,
काश मैने गाया दिलकी कोहि तराना होता । ५

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